बस्तर की इमली: खट्टे स्वाद में छुपा आदिवासियों का मीठा सपना, 500 करोड़ का कारोबार लेकिन हाथ खाली

Tamarind

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जगदलपुर। मार्च की मद्धम हवा जब बस्तर के जंगलों से होकर गुजरती है, तो वह केवल मौसम नहीं बदलती, बल्कि हजारों आदिवासी परिवारों की उम्मीदों को भी जगाती है। यह वह समय होता है जब गांव के बच्चे, महिलाएं और बुज़ुर्ग टोकरी-बोरी लेकर जंगल की ओर निकल पड़ते हैं, इमली बटोरने। यह खट्टी-मीठी इमली केवल स्वाद का जरिया नहीं, बल्कि आदिवासियों के लिए सालाना आमदनी का सबसे बड़ा सहारा बनती है।

बस्तर संभाग के छह जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा, सुकमा, नारायणपुर, कोंडागांव और बीजापुर – में हर साल 40 से 50 हजार टन इमली का उत्पादन होता है। यह देश भर में होने वाले इमली व्यापार का करीब 35 प्रतिशत हिस्सा है। इमली, बस्तर की वन-आधारित अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुकी है।

जंगल से मंडी तक इमली की यात्रा

ग्रामीण हर साल लगभग दो महीने जंगलों में बिताते हैं। एक परिवार औसतन 5 से 6 क्विंटल इमली इकट्ठा करता है, उसे सुखाता, छीलता है और फिर मंडी में बेचने ले जाता है। लेकिन दिक्कत यह है कि हर मंडी में इमली के दाम अलग होते हैं।

उदाहरण के तौर पर – जगदलपुर मंडी में 19 मई को इमली का दाम ₹54.10 प्रति किलो था, जबकि बस्तर में यह ₹27 प्रति किलो तक ही रह गया।
अगर कोई परिवार 500 किलो इमली बेचता है, तो जगदलपुर में उसे करीब ₹27,000 से ₹37,500 मिल सकते हैं, जबकि बस्तर मंडी में सिर्फ ₹13,500 की ही आमदनी होती है।

मेहनत अधिक, आमदनी सीमित

बिचौलियों और असमान मंडी व्यवस्था के कारण आदिवासी परिवारों को उनकी मेहनत का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। यही वजह है कि सरकार के दावों और योजनाओं के बावजूद आदिवासियों की आय सीमित रह जाती है।

इमली का व्यापक उपयोग, फिर भी अधूरी कमाई

इमली से बनते हैं – चटनी, कैंडी, अचार, सिरका, पल्प, जैम, बीज पाउडर, बाइंडर, पशुचारा और औद्योगिक उत्पाद।
बावजूद इसके ग्रामीणों को केवल सूखी इमली या बीज बेचकर ही गुज़ारा करना पड़ता है।

बस्तर की इमली: देश से विदेश तक

हर साल बस्तर से लगभग 10,000-12,000 टन इमली राज्य के बाहर 5,000 टन से अधिक इमली विदेशों में निर्यात होती है।

महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसका उपयोग मसाला, पल्प और चटनी उद्योग में होता है।

विदेशों में – मलेशिया, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड, UAE, अमेरिका और ब्रिटेन में बस्तर की इमली की बड़ी मांग है।

500 करोड़ का कारोबार, लेकिन आदिवासियों को सिर्फ 30-40% हिस्सा

सरकारी और निजी आंकड़ों के अनुसार, बस्तर की इमली से हर साल लगभग ₹350 से ₹500 करोड़ का कारोबार होता है, लेकिन इसमें से केवल 30-40% हिस्सा ही कलेक्टर्स को मिलता है। बाकी पैसा प्रोसेसिंग कंपनियों और बिचौलियों की जेब में चला जाता है।

रास्ता: स्थानीय स्तर पर प्रोसेसिंग इकाइयां

विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि इमली की प्रोसेसिंग इकाइयां गांवों के पास लगाई जाएं और स्थानीय ब्रांड विकसित किए जाएं, तो ग्रामीण सिर्फ कच्चा माल नहीं, बल्कि तैयार उत्पाद बेचकर अधिक कमाई कर सकते हैं। इससे यह व्यापार ₹500 से बढ़कर ₹600 करोड़ तक पहुंच सकता है।

सपनों से भरा एक खट्टा फल

बस्तर की इमली केवल एक फल नहीं, बल्कि हजारों सपनों का आधार है।
कोई बेटी की पढ़ाई का सपना देखता है,
कोई बीमार दादी की दवा का,
तो कोई नई बैलगाड़ी खरीदने का।

पेड़ हर साल फल दे रहा है, लेकिन समाज और सिस्टम कब इन आदिवासियों को उनके हिस्से का फल देगा? यह सवाल आज भी बस्तर के हर पेड़ की शाख पर टंगा हुआ है।

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