Etawah Brahmin-Yadav dispute: ब्राह्मण बनाम यादव की सियासत, इटावा में क्यों गरमाया विवाद? धार्मिक फसाद के पीछे की कहानी

Etawah Brahmin-Yadav dispute

Etawah Brahmin-Yadav dispute

इटावा, उत्तर प्रदेश | Etawah Brahmin-Yadav dispute: 21 जून को इटावा में हुआ ब्राह्मण-यादव विवाद अभी भी गरमाया हुआ है, और इसकी आंच पर राजनीतिक रोटी भी पक रही है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इस मुद्दे को लेकर घमासान मचा हुआ है, जिसमें समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव विशेष रूप से मुखर हैं। यह सवाल उठ रहा है कि जातीय वैमनस्य का लंबा इतिहास रखने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश की बजाय, यह विवाद इटावा में ही क्यों हुआ, जहां जातीय संघर्ष अपेक्षाकृत कम रहा है।

इटावा में विवाद के कारण और जातीय समीकरण

इटावा में ब्राह्मण और यादव आबादी लगभग बराबर है, और दोनों की आर्थिक शक्ति भी लगभग समान है। यहां राजनीतिक रूप से भी यादव और ब्राह्मण एक-दूसरे के दबैल नहीं हैं, और जिले में शिक्षा का स्तर भी बेहतर है। इसके बावजूद विवाद का यहीं होना कई सवाल खड़े करता है।

ज्योतिष पीठ के जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का बयान इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जिन्होंने कहा है कि इस विवाद के पीछे राजनीति है। पहले उन्होंने कहा था कि भागवत कथा सिर्फ ब्राह्मण ही बांच सकता है, लेकिन जब राजनीति गरमाई तो उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शास्त्रोक्त मत है और सकाम कथा के लिए कथावाचक का ब्राह्मण होना अनिवार्य है, जबकि निष्काम कथा कोई भी सुना सकता है। उनके अनुसार, इस पूरे प्रकरण में राजनीति खेली जा रही है।

राजनीति में हाशिए पर ब्राह्मण और जातीय संघर्ष का इतिहास

सच्चाई यह है कि भारतीय राजनीति में ब्राह्मण अब हाशिए पर हैं, और उनके वोटों की शक्ति भी कमजोर पड़ गई है। एक समय था जब उनकी उपेक्षा करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं था। आजादी के समय उत्तर प्रदेश से लेकर मद्रास (अब तमिलनाडु) और पंजाब से लेकर ओडिशा तक ब्राह्मण ही मुख्यमंत्री हुआ करते थे। लेकिन 1990 के बाद से ब्राह्मण देश की मुख्य धारा से गायब होने लगे। उन्हें लगता है कि उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं है, और वे निराशा में डूब रहे हैं। नौकरियों और पारंपरिक पेशों में भी वे पिछड़ रहे हैं, लेकिन उनका जातीय अहंकार यथावत है।

उत्तर प्रदेश में, जहां ब्राह्मण आबादी अधिक है, सत्ता ब्राह्मणों से यादवों ने ली थी। 1990 में मुलायम सिंह यादव ने एन.डी. तिवारी सरकार को अपदस्थ कर सत्ता संभाली, जिससे उत्तर प्रदेश में यादवों और ब्राह्मणों के बीच रिश्तों में कड़वाहट 35 साल पुरानी है। जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तब इटावा शहर में यादवों और ब्राह्मणों के बीच अनावश्यक विवाद होते रहते थे। तब तक इटावा से अक्सर ‘चौधरी ब्राह्मण’ ही चुनाव जीतते रहे थे, जो खुद को अयाचक ब्राह्मण मानते थे और आर्थिक रूप से समृद्ध थे।

यह स्थिति केवल इटावा तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि मैनपुरी, फर्रुखाबाद और एटा में भी थी, जहां यादवों की संख्या अधिक थी और वे दबंग भी थे। यहीं से यादव बनाम ब्राह्मण की नींव पड़नी शुरू हुई। धीरे-धीरे ब्राह्मण हाशिए पर जाने लगे। कांग्रेस और भाजपा के कमजोर पड़ने पर ब्राह्मणों ने बसपा का दामन थामा, लेकिन 2017 के बाद बसपा से मुस्लिम वोट दूर होने लगे। केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद गैर-यादव पिछड़े वोटर भाजपा की तरफ जाने लगे, और ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ तथा बनिया मतदाता भी भाजपा की ओर चले गए।

अखिलेश यादव का बयान और धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री पर आरोप

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो ‘इंडिया’ गठबंधन बनाया, उसमें ‘पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों (PDA)’ की बात तो होती थी, लेकिन सवर्ण और खासकर ब्राह्मण कहीं नहीं थे। अखिलेश यादव ने इस नारे को खूब प्रचारित किया। अखिलेश यादव इसी इटावा जिले के सैफई गांव के हैं, जहां यादव हर तरह से ताकतवर हैं।

इटावा से पश्चिम और उत्तर की तरफ बढ़ने पर यादवों की आबादी काफी है और वे बाहुबल में भी अन्य जातियों पर भारी पड़ते हैं। इटावा से पूरब की तरफ बढ़ने पर ब्राह्मणों की संख्या बढ़ने लगती है, जबकि दक्षिण में यमुना किनारे राजपूत अधिक हैं। इटावा, एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, कन्नौज और फिरोजाबाद में यादव किसी भी जाति पर भारी पड़ते हैं। इसलिए 21 जून को इटावा के दादरपुर गांव में जो हुआ, उसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी।

इस विवाद पर खूब हंगामा हुआ, लेकिन सपा को छोड़कर सभी दलों ने चुप्पी साध ली। हालांकि, अखिलेश यादव ने कहा कि बड़े और नामी कथावाचक बहुत अधिक फीस लेते हैं, इसलिए वे कथावाचक बुलाए जाएंगे जो मुफ्त में कथा पढ़ते हैं। इस तरह उन्होंने परोक्ष रूप से दादरपुर में आए यादव कथावाचक का पक्ष लिया। अखिलेश ने तो सीधे बागेश्वर धाम के प्रमुख धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री पर आरोप लगाया कि वे अंडर टेबल ₹50 लाख तक की फीस लेते हैं।

अखिलेश यादव की समस्या यह है कि वे दादरपुर में जिस यादव कथावाचक की पिटाई हुई, उसके विरुद्ध बोल नहीं सकते और न ही छेड़खानी का आरोप लगाकर उसे पीटने वाले ब्राह्मणों को कोस सकते हैं। इसलिए उन्होंने धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के बहाने इस प्रकरण पर अपनी बात रखी।

धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने इस आरोप पर मोर्चा खोल दिया है कि अखिलेश यादव अपने आरोप साबित करें। धीरेंद्र शास्त्री ने यह भी कहा है कि किसी भी जाति का व्यक्ति भागवत कथा बांच सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, और बिहार में यादव आबादी सर्वाधिक है, फिर भी तेजस्वी या लालू यादव इस विवाद पर चुप हैं, क्योंकि ब्राह्मण भी वहां 3.85 प्रतिशत हैं। राजनीति में एक-एक वोट की कीमत होती है, इसलिए जाति विवाद को हवा देने का अर्थ है अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारना।

Youthwings