स्त्री-पुरुष संबंधों में बिगड़ते संतुलन की त्रासदी: एक नैतिक और मानवीय विमर्श

समाज में पारिवारिक संरचना को हमेशा से आदर्श और स्थायित्व का प्रतीक माना गया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे आपराधिक घटनाक्रमों की संख्या में वृद्धि हुई है, जहाँ विवाह जैसी पवित्र संस्था छल, द्वेष और हिंसा का माध्यम बन गई है।राजा रघुवंशी और सोनम रघुवंशीजैसे मामले इस बात का प्रमाण हैं कि अब केवल स्त्रियाँ ही नहीं, बल्कि पुरुष भी घरेलू हिंसा और मानसिक उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। हालाँकि सोनम का जुर्म अभी साबित नहीं हुआ है, और असलियत सामने आने में वक्त लग सकता है। मगर इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। हाल-फिलहाल में पत्नी द्वारा पतियों की ह्त्या या तलाक के नाम पर उत्पीडन के कई मामले समूचे देश की सुर्ख़ियों में शामिल रहे हैं। इन मामलों में कानून, प्रशासन और सरकारें अपनी भूमिका निभाती रहेंगी, मगर इस देश के प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते हमारी मानवीय और नैतिक ज़िम्मेदारियों पर विमर्श की आवश्यकता है।

मेघालय से लापता सोनम का एक पखवारे बाद ग़ाज़ीपुर में मिलना उसे संदेह के घेरे में डाल चुका है। राजा रघुवंशी की ह्त्या की साज़िश में यदि उसकी संलिप्तता साबित हो जाती है तब विवाह जैसे पवित्र बंधन सेयुवाओं का भरोसा उठना स्वाभाविक है। सात फेरों के इस पावन रिश्ते के साथ ऐसा खिलवाड़ अमानवीय है।

चाहे सौरभ सिंह हो या राजा रघुवंशी, इन मामलों से यह बात साफ़ है कि बात केवल अपराध कि वीभत्सता तक सीमित नहीं है।36 वर्षीय आईटी प्रोफेशनल अतुल सुभाष की आत्महत्या जिसके पीछे तलाक की प्रक्रिया और पत्नी द्वारा मानसिक प्रताड़ना कारण बताया गया, सोचने को मजबूर करती है कि आज की पीढ़ी की, विशेषकर स्त्रियों की मनोदशा या मानसिकता ऐसी क्यों होती जा रही है।

वैवाहिक संबंधों में अविश्वसनीयता आज समाज के सामने एक बहुत बड़ी समस्या बन कर सामने खड़ा है।आधुनिक जीवनशैली में संवादहीनता से विश्वास और सम्मान का अभाव अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है।1 जनवरी से 31 मई 2025 के बीच पांच महीने में 1169 मामले फैमिली कोर्ट में पहुंचे हैं, जो 2024 की तुलना में 216 मामले अधिक हैं। इनमें तलाक के 700 व घरेलू हिंसा व भरण पोषण के 469 मामले हैं,जबकि 2024 में तलाक के 506 व भरण पोषण, घरेलू हिंसा के 447 फैमिली कोर्ट में आए थे। इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि भारत जैसा देश जहाँ विवाह को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना जाता था, आजकल फैमिली क्राइसिस से गुज़र रहा है और वैवाहिक संस्था की आस्था पर सवाल उठ रहे हैं।

जो कानून महिलाओं की सुरक्षा और अस्मिता की रक्षा के लिए बनाया गया था, उसी कानून का फ़ायदा उठा कर महिलाएँ अब पैसे ऐंठना, संपत्ति लूटना और पति व ससुराल वालों को मानसिक उत्पीड़न देने से नहीं कतराती हैं। ऐसा नहीं है कि महिलाओं को इस कानून की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु दहेज कानून (498A) और घरेलू हिंसा अधिनियम के दुरूपयोग के कई मामले अब जनता की नज़रों में आ चुके हैं।अवसाद, ईगो क्लैश, अपेक्षाओं का टकराव और आर्थिक अस्थिरता भी संबंधों में विष घोलते हैं। ऐसे में एक कदम आगे बढ़कर ह्त्या जैसी वारदातों को अंजाम देना एक नई समस्या की ओर इशारा कर रहा है – मेंटल हेल्थ।

मानव जीवन अमूल्य है। विवाह यदि प्रेम, सहयोग और साझेदारी का आधार न बन सके तो उसे सुलझाने के कानूनी और सामाजिक उपाय होने चाहिए, न कि हिंसा या छल से इसका अंत। किसी भी पक्ष द्वारा मानसिक या शारीरिक शोषण केवल कानून का नहीं, नैतिकता का भी उल्लंघन है।हर मानव को सुनने और समझे जाने की आवश्यकता होती है। एक स्वस्थ दांपत्य के लिए केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य और संवेदना की ज़रूरत है। इस कार्य के लिए कानून, समाज और प्रशासन की साझेदारी की भूमिका होनी चाहिए।

समस्या गम्भीर है, किन्तुउपायों पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। जैसे पूर्व-विवाह परामर्श (Pre-marital counselling) को प्रोत्साहन दिया जाए।मीडिया और फिल्मों मेंसंतुलित और संवेदनशील चित्रण हो ताकि विवाह और संबंधों की समझ सही रूप में विकसित हो।स्कूल स्तर परनैतिक शिक्षा, सह-अस्तित्व और भावनात्मक बुद्धिमत्ता को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।सामाजिक संस्थाओंको चाहिए कि वे विवाह के समय केवल उत्सव न करें, बल्कि जिम्मेदारियों की समझ भी विकसित करें।डिजिटल रिकॉर्डिंग और साक्ष्यको कानूनी रूप से अधिक मान्यता दी जाए जिससे झूठे आरोपों का पर्दाफाश हो सके। विशेषकर,राजा रघुवंशी केस में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। इस केस ने जिस प्रकार जनमानस और न्याय प्रणाली का ध्यान आकर्षित किया, उसमें मीडिया एक प्रमुख कड़ी के रूप में सामने आया।प्रारंभ में जब केस की जानकारी सीमित थी और पुलिस प्रशासन पर निष्पक्ष जांच को लेकर संदेह था, तब मीडिया ने लगातार रिपोर्टिंग कर इस मामले को सामने लाने का कार्य किया। इससे जनता में जागरूकता फैली और उच्चस्तरीय जांच की माँग उठी।मीडिया कवरेज ने जनभावनाओं को स्वर दिया और प्रशासन व न्यायिक संस्थाओं पर कार्रवाई के लिए नैतिक दबाव बनाया। यही दबाव था जिससे केस की जांच विशेष एजेंसियों तक पहुँच सकी।

हालांकि, कुछ मीडिया चैनलों द्वारा बिना ठोस प्रमाणों के आरोपियों को दोषी या निर्दोष ठहराने की प्रवृत्ति देखी गई, जिससे ‘ट्रायल बाय मीडिया’ जैसी स्थिति उत्पन्न हुई। इससे न्यायिक प्रक्रिया पर असर पड़ सकता है और यह निष्पक्ष न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध जाता है।मीडिया ने केस से संबंधित अदालती कार्यवाहियों, साक्ष्यों और घटनाक्रमों को जनता तक पहुँचाने का कार्य किया, जिससे पारदर्शिता बनी रही।राजा रघुवंशी केस में मीडिया ने एक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई, लेकिन कुछ जगहों पर इसकी निष्पक्षता और संयम पर प्रश्नचिन्ह भी लगे। इसलिए ऐसी संवेदनशील घटनाओं में मीडिया को जिम्मेदार और संतुलित भूमिका निभानी चाहिए ताकि न्याय और लोकतंत्र दोनों को बल मिले।

आज की दुनिया में स्त्री और पुरुष दोनों ही समान रूप से संवेदनशील, भावनात्मक और पीड़ित हो सकते हैं। जिस समाज में किसी भी एक वर्ग की पीड़ा को उपेक्षित किया जाता है, वहाँ न्याय और संतुलन की बात अधूरी रह जाती है। यह आवश्यक है कि हम विवाह को एक संवेदनशील साझेदारी समझें, न कि संघर्ष का मैदान। केवल तभी हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ सकेंगे जो वास्तव में न्याय, करुणा और सह-अस्तित्व पर आधारित हो।

दीपा लाभ, स्वतंत्र पत्रकार, जर्मनी

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